शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

हजारों ख्वाहिशें ऐसी...

"हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले."


प्रस्तुत पंक्तियाँ मिर्जा गालिब की ग़ज़ल से ली गयीं हैं. इन पंक्तियों में मिर्जा गालिब ने बड़ी ही सुन्दरता से मनुष्य के असंतोषी स्वभाव का वर्णन किया है.

मानव हिर्दय बड़ा ही लोभी और असंतोषी होंता है. उसके दिल में इक्छायें अकान्शाएं और अभिलाषाएं निरंतर जनम लेती रहती हैं,और उनका कहीं अंत नहीं होता है. मनुष्य जब किसी वस्तू, धन या मान मर्यादा को पाने की कामना करता है तो उसको पाने के बाद भी उसे संतोष नहीं होता है. फिर मनुष्य उससे ज़्यादा और बेहतर की कामना करने लगता है. उद्हारण के लिए, किसी मनुष्य के पास अगर घर नहीं है तो वह अपनी सर पर एक छत की कामना करता है. जब वह मिल जाता है तब फिर वह उससे बड़े घर, गाड़ी, बंगला नौकर चाकर सबकी कामना करने लगता है. इस तरह उसके अरमान जितने भी पूरे हों उसे कम ही लगते हों कहीं न कहीं मनुष्य की यही प्रकृति उसे सफलता की तरफ़ बढाती है.

इस प्रकार गालिब की ये पंक्तियाँ हमें यह सीख देती हैं कि हम ज़िन्दगी में ख्वाहिशें ज़रूर रखें लेकिन उनकी प्राप्ति के बाद उन पर संतुष्टठ होना सीख लें.

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