सोमवार, 9 फ़रवरी 2009
ओह नो !
ओह नो ! परीक्षाएँ मनुष्य की मानसिक स्थिति को बिगाड़ देते हैं | वे डराते हैं , मुह पर मुक्का मारते हैं और पेट में लात | मेज़ पर रखी मोटी मोटी किताबो और हाथ में बचे वक्त का कोई तोल नही | परीक्षाएँ तुम्हे धरती पर वापस ले आती हैं और सचाई से सामना कराती हैं | हाँ भाई , जब रॉकेट की रफ़्तार से क्लासेस बंक करोगे और जितने गिने चुनो में जाओ उसमे भी आख़िर बेंच में बैठ सपने देखोगे तो यही हाल होता है | हाँ आपने सही पहचाना , मेरा अभी यही हाल है , दो दिनों में इम्तिहान है और मैंने किताबों का चेहरा भी नही देखा | वैसे सोचे तो , बचपन कितना अच्छा था ना , हम अपना काम कितना वक्त पर करते थे | हर दिन अपनी प्यारी सी पेंसिल लेकर अपने आप होम वर्क शुरू कर देते थे और अगर कुछ नही आए तो झट से कविता या सुनीता को फ़ोन लगाकर " अरे , तुने वोह किया ? कैसे किया ? बतादे ना " कहते थे | फिर हमें बड़े होते होते क्या हो जाता है ? आलस क्यूँ हमारे अन्दर पनाह ले लेता है और पेरासाईट की तरह बढ़ने लगता है ? और हम उसे निकालने की कोई कोशिश भी तो नही करते | खैर छोडिये , अब मुझे जाके सच्चाई का सामना करना होगा , किताबें खोलनी होंगी | अपनी ज़िन्दगी की दुःख भरी गाथा बाद में सुनाती रहूंगी |
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