रविवार, 21 सितंबर 2008

माया

आँखों में थी आशाएँ
चेहरे पर मुस्कराहट
पठरी पे रेल गाड़ी
और दिल मे केवल चाहत।

लोगों की नदियों मे
मै खड़ा था अकेला
इंतज़ार की घड़ी को
साहस से मैने झेला।

सूरज ढल रहा था
होने लगा अंधेरा
ढलती रोशनी मे
दिखा न उसका चेहरा।

जब कहीं नही दिखी वो
मन थोड़ा सा घबराया
नज़र इधर से उधर गयी
परन्तु उसको नही पाया।

एक घंटे तक मै वहाँ रुका
पर कहीं नही दिखी वो
सोचा घर जाकर देख लूँ
शायद वो आप निकल गयी हो।

बाहर निकला तो देखा तो
प्रत्यक्ष थी मेरी ‘माया’
खुशी से वो चीख उठी
और मुझको गले लगाया।

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