गुरू की महिमा को प्रत्येक धर्म एवं शास्त्रों में अनेक व्याख्यायें की गई है। गुरू ही सुशिक्षित कर मनुष्य को मनुष्य बनाते है तथा संयम से चलने और मर्यादाओं में रहने की राह बताते है अगर मनुष्य भर्यादाओं के भीतर नहीं रहेगा तो राह भटक जायेगा जिस प्रकार नदी जब अपनी मर्यादा से भटकने लगती है तो अपना स्वरूप खोने लगती है उसी प्रकार मनुष्य भी मर्यादाओं से नही बंधेगा तो संसार का स्वरूप नष्ट हो जायेगा। गुरू ही हमें ‘‘जीओं और जीने दो‘‘ का पाठ पढ़ाते है तथा सुयोग्य एवं ज्ञानवान बनाकर संसार को एक सही राह पर चलने के लिए पे्ररणा देते है ।
गुरू ही हमें गोविन्द अर्थात् परमात्मा से भी मिलाने का रास्ता बताते है इसलिए परमात्मा से पहले गुरू का सम्मान किया गया हैं। जिस राष्ट्र में गुरूओं का सम्मान नही होगा उस राष्ट्रª का पतन अवश्यभावी है।
राजाओं के समय में भी गुरूओं को सदैव उचित सम्मान मिलता रहा हैं यहाँ तक कि वो अपनी सभाओं में राज्य ज्योतिषी तथा नीतिगत राज्य चलाने के लिए धर्म गुरूओं को भी सभाओं में सर्वोच्च स्थान देते थे ताकि राज्य को नीतिपूर्वक चलाया जा सकें। आदि काल से गुरूओं को उचित सम्मान मिलता रहा हैं और गुरूओं के द्वारा ही बनायी गयी मार्गदर्शिता, मर्यादाये राष्ट्र का निर्माण एवं विकास करती रही। आज भी देश एवं राष्ट्र को सुदृढ़, सुसुक्षित एवं सुयोग्य बनाने में गुरूओं का भारी योगदान है।
सोमवार, 29 सितंबर 2008
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