सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

जवानी

कल रात जब "ग्रामि अवोर्दस" का दूरदर्शन प्रसारण चल रहा था, मेरा स्मरण उठ गया और जब तक में जागी थी तब तक मेरा चित्त विगत दिनों के याद में रुक गया था। जवानी में मुझे लगता था कि काल धीरे-धिरे चल रहा है ख़ास तौर से गरमी के छुट्टियों में जिस्मे हर दिन पक्षी की बोलीयाँ दो-तीन घंटे के लिये सुन सकते थे। उस समय में, हम जिवन की छोटे सुख अछी तरह से अनुभव कर सकते थे क्योंकि सब कुछ करने के लिये समय था। अगर में दूरदर्शन देखना चाहती थी या मुझे दिवा-स्वप्न में खो जाने की इछा थी तो दिन में मुझे समय मिल जाता था। सुबह को में और मेरे भाई नौ या दस बजें उठ जाते थे। जब में जवान थी गरमी में मुझे बाइसिकल चलाना बहुत शौक था इस लिये हर सवेरा, जाग-कर, में तीन-चार मिल के लिये बाइसिकल चलाती रहती थी। दोपहर को में कुछ भी मनपसंद कर्म करती थी जैसे किताब पड़ना या दोस्तों से मिलना।

दुख की बात है कि आजकल हमारे मन में सिर्फ एक ही विचार है - यह करना है, उस्से मिलना है वगरह। लेकिन हम सब जानते है कि दिन में सब कुछ करने के लिये समय नहीं होता है। कारण जो भी हो मुझे यकीन है कि हम को पक्षी सुनने के लिये कुछ समय रखना चाहिये। हमरी पागल सी ज़िंदगी को रोखना हमारे हथों में है।

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