बुधवार, 14 नवंबर 2007

क्रोध, एक अभिशाप

क्रोध अहंकार व ईर्ष्या से जन्म लेता है। मनुष्य का क्रोध विनाश का करण बन जाता है।जब मनुष्य क्रोधित होता है तब उसकी सारी शिक्षा , सारी होशियारी, सारा पाण्डित्य धरा का धरा रह जाता है।मनुष्य के भीतर का दानव प्रकट होने लगता है। ऐसी स्थिति में बुद्धि और विवेक का कोई वश नहीं चलता तथा मनुष्य हिंसा का ताण्डव करने लगता। इतिहास गवाह है कि कई राजाओं ने अहंकार को तृप्त करने के लिये भयंकर नरसंघार किये हैं।सभी सिकंदरों,हिटलरों व ओसामाओं की एक ही कहानी है कि सभी ने अपनी महत्वकांक्षाओं की खातिर दुनिया को नरक जैसा बना दिया ।

क्रोध एक शक्ति भी है। जब हमारा शरीर क्रोधयुक्त होता है तो भीतर से एक शक्ति जन्म लेती है। यह शक्ति वस्तुओं या व्यक्तियों पर तुरन्त टूट पड़ती है जिसके करण वह निर्बलों पर अत्याचार करने लगता है। पुरुष स्त्रियों व बच्चों पर टूट पड़ता है , स्त्री बच्चों पर बरस पड़ती है आदि ।

क्रोध मन की अशांति से जन्म लेता है, यह मन के अस्वीकार से उपजता है।मन उन बातों को स्वीकार नहीं कर सकता जो अहंकार के विप्रीत हों । क्रोध कहता है कि बिना चुनौतियों को स्वीकार किये , बिना कांटों का सामना किये शिखर को छू लिया जाये ।इसलिये क्रोध हिंसा का सहारा लेता है । क्रोध का अंत हमेशा पछतावे के रूप में देखा गया है।जब क्रोध शांत होता है तब दिखाई पड़ता है कि भूल हुई है व क्रोध कितना बड़ा अभिशाप है।

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