मंगलवार, 27 नवंबर 2007

सिनेमा और समाज

सिनेमा बीसवीं सदी में मानव जाति को मिले कुछ बेशकीमती वैज्ञानिक उपहारों में से एक है। इसने विश्व के मनोरंजन के परिदृश्य में एक क्रांति ला दी है क्योंकि इससें पहले नाटक,नौटंकी व त्योहारों के अवसर पर लगने वाले मेले ही लोगों के मनोरंजन का प्रमुख साधन थे। क्योंकि ऐसे समागम कभी-कभी ही आयोजित हुआ करते थे , अतः मनोरंजन के मामले में लोग सदा ही अतृप्त रहा करते थे । सिनेमा विश्व के लोगों के लिये मनोरंजन का एक उत्तम साधन बनकर सामने आया है क्योंकि इसे किसी भी वर्ग ,जाति या धर्म के लोग एक साथ देख सकते हैं तथा इसका आनन्द पूरा परिवार एक साथ बैठ कर उठा सकता है।यह मनोरंजन का एक सुलभ साधन बन गया है ।

भारत में अंगरेज़ों के शासन काल से ही फिलमें बनने का सिलसिला आरम्भ हुआ जिसका सफर मूक, संवाद के साथ मगर श्वेत-श्याम और फिर रंगीन फिलमों के दौर से गुज़रा और आज भी भारतीय फिल्में पूरी दुनिया में बड़े चाव से देखी जाती हैं। लेकिन पुरानी फिल्मों और आज के दौर की फिल्मों में एक बड़ा अंतर है कि जहाँ पुरानी फिल्में समाज के सभी वर्गों को ध्यान में रखकर बनाई जाती थीं वहीं आज का सिनेमा पारिवारिक एवं नैतिक हितों को कई तरह से अनदेखी करता है ।

जहाँ तक सिनेमा और समाज के आपसी सम्बंधों की बात है तो अब तक के अनुभवों से यह सिद्ध हो गया है कि दोनों अपनी-अपनी सीमा तक एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । हर दशक का सिनेमा तेज़ी से परिवर्तित होते समाज को दर्शाता है । सिनेमा और समाज एक दूसरे के पूरक भी हैं । व्यक्ति थोड़ी देर के लिये ही सही, अपने दुखपूर्ण संसार से बाहर आ जाता है।जिस प्रकार साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है उसी प्रकार सिनेमा भी समाज का दर्पण बनता दिखाई दे रहा है ।

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