गुरुवार, 20 सितंबर 2007
पस्चिम्मी सभ्यता का अस्सर
घर से कोसों दूर हम यहाँ महाविद्यालय में अपने जीवन के जड़ मजबूत करने आते है। तकनीकी विकास के कारण अब दुनिया के एक कोने से दुसरे कोने तक यात्रा करना मुमकिन ही नहीं, आसान हो गया है। दुनिया एक चक्कर पूरा करता नहीं हैं कि हम भारत से अम्रीका देश मे प्रवेश कर लेते हैं। इन ही विकासों के करण जिन्दगी की गति बढ gई है साथ ही साथ ज़्यादा प्रतिस्पर्धा हो गयी है। ऐसे हलाथो में ज़िंदगी काबलांस बहुत महत्वपूर्ण हैं। महाविद्यालय में प्रवेश करने के बाद विद्यार्थियों का दृष्टिकोण इस क़दर बदल जाता हैं कि वे किस्सी भी तरफ आसानी से आकर्षित हो जाते हैं, चाहे वोह अच्छाई का पथ हो या बुराई का। इन विचारों को मॅन में रख कर, मैंने अपनी जिन्दगी को नया लक्ष दिया। ऐसे लगता ही नहीं हैं कि इस लक्ष को रूप देते हुए दो साल बीत गए। अक्क्सर मैं अपने आप से पूछता हूँ कि और कितना वक्त बाक़ी हैं जिन्दगी के दुसरे पड़ाव के लीये? वक्त आ गया हैं की मैं खुद अपने पैर पर खड़ा हो जाऊं और अपने माता पिता का सर ऊचा कर दु!
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें