स्कूल से निकले मुझे अब लगबग 5 साल हो गये है।लेकीन यह पांच साल इतनी तेज़ गति से बीत गये कि मुझे कभी कभि लगता है कि मैं कल ही स्कूल में था। स्कूल के दिन मेरे अब तक की ज़िन्दगी के सब से सुहाने दिन रहे हैं।
पाठ्शाला में अध्यापिकों का आदर करना बहुत ज़रूरी था। अगर हम किसी भी अध्यापक को देखते तो हमें नमस्कार करना पड्ता था। अगर हम नही कह्ते तो हमें डन्ड होता था। फ़िर कभी कोई शिक्षक कक्षा में आये तो सभी पाठ्कों को खडे हो कर शिक्षकों का आमन्त्रण करना पडता था। यह सब चीज़ो ने मुझे बडों के प्रति आदर और छोटों के प्रति विनम्रता से पेश आने के अच्छे गुण दिये हैं।
हमारी पाठ्शाला खेल कूद को उतना ही महत्व देती थी जितना पढाई को। हर हफ़्ते एक फ़ुट्बॉल मैच होता था जिसमें हर बालक को भाग लेना आवश्यक था।मेरी स्कूल आर्य समाज द्वारा स्थापित थी। इसी कारण हर सोमवार हमारे स्कूल में एक हवन होता था। इस प्रकार हर बालक पुराने मन्त्रों को अच्छी तरह से समझ पाता था।
मैं जानता हू की हर व्यक्ति को अपनी स्कूल सबसे महान लगती है। और मेरे भी विचार कुछ ऐसे ही है। मैं आज जो भी हूँ वह मेरे पाठशाला और वहा सिखाने वाले शिक्षकों की वजह से हूँ ।
- शमिन असयकर
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