धन के प्रयोग तीन प्रकार के होते हैं: दान देना, धन का प्रयोग करना, तथा धन को केवल एकत्रित करना। ये धन की तीन गतियाँ होती हैं। जो व्यक्ति न धन का दान करता है, न स्वयं उपयोग करता है, उसका धन व्यर्थ हो जाता है अर्थात् ऐसा धन न होने के बराबर होता है।
धन का दान उसका सबसे उत्तम प्रयोग माना जाता है। यह एक परोपकार का कार्य है। यह दान यदि निस्वार्थ भाव से किया जाए, तो अधिक श्रेष्ठ हो जाता है। भारतीय संस्कृति में तो गुप्त दान की भी प्रशंसा की गइ है। गुप्त दान करने से अहंकार का जन्म नहीं होता है।
धन की दूसरी गति उसका उपयोग करना है। वास्तव में धन तभी सिद्ध होता है, जब उसका प्रयोग किया जाए। धन की सार्थकता उपयोग में ही है। यदि धन का प्रयोग न हो तो उसकी वृद्धि नहीं होती है।
धन की तीसरी गति दुर्गति होती है। मनुष्य जीवन भर अपने बच्चों के लिये धन एकत्रित करते हैं और उसका प्रयोग नहीं करते। ऐसा धन नष्ट होने के समान होता है। मनुष्य को यह याद रखना चाहिये, कि यदि उसके पुत्र योग्य हों, तो उनको माता-पिता के धन की आवश्यकता ही न होगी। यदि पुत्र योग्य न हों, तो वे धन का दु्रुपयोग करके उसका नाश कर देंगे।
धन को एकत्रित करके रखना, उसके उपयोग को रोकना, उसकी दुर्गति के समान है। अपने धन का कुछ हिस्सा ज़रूर उन लोगों में बाट देना चहिये, जिनको उसकी आवश्यकता हो। धन का प्रयोग सदैव सोच समझ के करना चाहिये।
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